अल्टरनेटर

अल्टरनेटर


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अल्टरनेटर का कार्य-सिद्धान्त
अल्टरनेटर प्रत्यावर्ती धारा उत्पन्न करने वाला विद्युत जनित्र है। वस्तुतः यह एक तुल्यकालिक मशीन है। वर्तमान समय में अधिकांश शक्ति संयंत्रों में विद्युत उत्पादन का कार्य अलटरनेटर ही करते हैं।
समय के साथ साथ बहुत बड़े बड़े आकार के अलटरनेटर बनने लगते हैं। ५०,००० से १,५०,००० किलोवाट की क्षमतावाले जनित्र अब सामान्य हो गए हैं। ये निरंतर प्रवर्तन करनेवाली मशीनें हैं, इसलिए इनकी संरचना भी अत्यंत मानक आधार (exacting standards) पर होती है। मुख्यत:, यह स्वत: कार्यकारी मशीन होती है और इसके सारे प्रवर्तन दूरस्थ नियंत्रण (remote control) द्वारा नियंत्रित किए जा सकते हैं। क्षेत्र धारा के विचरण से वोल्टता नियंत्रण सुगमता से किया जा सकता है। भार के अनुरूप निवेश (input) स्वयं ही नियंत्रित हो जाता है। इन सब कारणों से वर्तमान विद्युत् जनित्र बहुत ही दक्ष एवं विश्वसनीय होते हैं। वास्तव में इनके विश्वसनीय प्रवर्तन के कारण ही विद्युत् संभरण को विश्वसनीय बनाया जाना संभव हो सका है।

परिचय[संपादित करें]

जैसे जैसे विद्युत् का प्रयोग बढ़ता गया, जनित्रों का आकार एवं जनित वोल्टता में भी वृद्धि होती गई। परंतु दिष्टधारा जनित्रों में, आर्मेचर घूमनेवाला होने के कारण उसके आकार में बहुत वृद्धि करना संभव नहीं था। इसलिए उच्च वोल्टता जनित करनेवाले प्रत्यावर्ती धारा के जनित्र बनाए गए, जिनमें आर्मेचर स्वैतिक था और क्षेत्र परिभ्रमणशील। वस्तुत:, वोल्टता जनन के लिए यह आवश्यक नहीं कि चालक ही चुंबकीय क्षेत्र में घूमे। घूमते हुए चुंबकीय क्षेत्र में स्थित चालक में भी वोल्टता प्रेरित होगी, क्योंकि इस दशा में भी वह चुंबकीय अभिवाह को काट रहा है। अत: इस सिद्धांत पर, स्थैतिक आर्मेचर और परिभ्रमण क्षेत्र द्वारा वोल्टता जनित हो सकती है। यह वोल्टता प्रत्यावर्ती प्ररूप की होगी और आर्मेचर चालक तथा क्षेत्र की सापेक्ष स्थिति पर निर्भर करेगी।
एक बडे जल पम्प का रोटर
एक बड़े पम्प का स्टेटर
प्रत्यावर्ती धारा जनित्र, सामान्यत:, स्थैतिक आर्मेचर और परिभ्रमणशील क्षेत्र के सिद्धांत पर आधारित होते हैं। इनमें क्षेत्र चुंबक और कुंडलियाँ परिभ्रमणशील बनाई जाती हैं तथा आर्मेचर उनको बाहर से घेरे होता है। आर्मेचर में कटे खाँचों (slots) में चालक स्थित होते हैं। आर्मेचर के स्थैतिक होने के कारण और बाहर की ओर होने से, उसका आकार काफी बढ़ाया जा सकता है, जिसका मतलब है, उसमें चालक संख्या काफी अधिक हो सकती है। क्षेत्र वाइंडिंग सापेक्षतया छोटे होते हैं और उन्हें अधिक वेग पर घुमाया जाना, व्यावहारिक रूप में, कोई कठिनाई नहीं उत्पन्न करता। इन कारणों से प्रत्यावर्ती धारा जनित्रों में उच्च वोल्टता जनित करना संभव है और ये साधारणतया ११,००० वोल्ट पर प्रवर्तित किए जाते हैं।
रोटर को डीसी देने की एक विधि ; लाल बक्से में दिखाया गया परिपथ शाफ्ट पर घूर्ण करता है।
स्लिप रिंगों के माध्यम से रोटर को डीसी द्ने की विधि
अल्टरनेटर का तुल्य परिपथ
इन जनित्रों में बुरुशों के स्थान पर सर्पी वलय (slip rings) होते हैं, जो क्षेत्र कुंडलियों को उत्तेजित करने के लिए धारा पहुँचाते हैं। क्षेत्र के परिभ्रमणशील होने के कारण उन्हें दिष्ट धारा द्वारा उत्तेजन करना आवश्यक है। उत्तेजन धारा या तो बाहरी स्रोत से प्राप्त की जाती है, अथवा उसी शाफ्ट पर आरोपित एक छोटे से दिष्ट धारा जनित्र से, जिसे उत्तेजक (Exciter) कहते हैं। उत्तेजन वोल्टता साधारणतया ११० अथवा २२० वोल्ट ही होती है। सभी बड़े जनित्रों में उत्तेजक द्वारा संभरण (सप्लाई) होता है, जिससे उत्तेजक के लिए अलग से दिष्ट धारा स्रोत की आवश्यकता न रहे।
प्रत्यावर्ती धारा जनित्रों को निर्धारित वेग पर ही प्रवर्तन करना होता है, जो उनमें जनित वोल्टता की आवृत्ति (frequency) एवं क्षेत्र ध्रुवों की संख्या पर निर्भर करता है। इसे निम्नलिखित समीकरण से व्यक्त किया जा सकता है :
n = 120 f / p
यहाँ n=परिक्रमण प्रति मिनट, f=आवृत्ति (चक्र प्रति सेकंड) तथा p=ध्रुव संख्या।
इस प्रकार, ५० चक्रीय आवृत्ति के लिए चार ध्रुवी मशीन १,५०० परिक्रमण प्रति मिनट के वेग से प्रवर्तन करेगी और दो ध्रुवी मशीन ३,००० परिक्रमण प्रति मिनट के वेग से। यदि निर्धारित वेग एक समान रहा, तो आवृत्ति में अंतर आ जाएगा। सामान्यत: विद्युत् संभरण निर्धारित वोल्टता और आवृत्ति के होते हैं। अत: आवृत्ति स्थिर रखने के लिए जनित्र का वेग एकसा न रखना आवश्यक है और यह वेग उसकी ध्रुवसंख्या के अनुसार निश्चित होता है। भारत तथा दूसरे कॉमनवेल्थ देशों में विद्युतसंभरण की आवृत्ति सामान्यत: ५० चक्र प्रति सेकंड निश्चित है। अमरीका तथा दूसरे देशों में ६० चक्रीय आवृत्ति प्रयोग की जाती है। आवृत्ति के अनुसार विभिन्न ध्रुवों के जनित्रों का वेग भी निश्चित होता है, जिसे समक्रमिक वेग कहते हैं।

प्रकार[संपादित करें]

आधुनिक टर्बोजनित्र
उपर्युक्त आधार पर, वेग के अनुसार इन जनित्रों के दो मुख्य प्ररूप होते हैं : एक तो टर्बोजनित्र (Turbo Generators), जिन्हें वाष्प टरबाइन से चलाया जाता है और उच्च वेग पर प्रवर्तित करते हैं तथा दूसरे जलविद्युत् जनित्र (Hydroelectric Generators), जो सामान्यत: कम वेग पर प्रवर्तित किए जाते हैं। कुछ का वेग तो १२५ परिक्रमण प्रति मिनट तक होता है। इनमें ५० चक्रीय आवृत्ति के लिए ४८ ध्रुव होते हैं। टर्वोजनित्र में ध्रुव संख्या २ या ४ से अधिक नहीं होती। बड़े जनित्रों में केवल २ ध्रुव ही होते हैं और वे ३,००० परिक्रमण प्रति मिनट पर प्रवर्तन करते हैं। इस अंतर के साथ साथ इनकी रचना में भी बहुत अंतर होता है। अधिक ध्रुवोवाली मशीन का रोटर (rotor) काफी बड़ा होता है। उसकी रचना एक गतिपालक चक्र (fly wheel) के समान होती है, जो मध्य भाग से साइकिल के पहिऐ की भाँति स्पोकों (spokes) पर आरोपित होता है और ध्रुव गोलाई में चारों ओर लगे होते हैं। इसे सैलिएंट ध्रुव (saliant pole) वाला रोटर कहते हैं। इसके विपरीत, टर्बो जनित्र का रोटर बहुत लंबा और बेलनाकार होता है। इसमें ध्रुव निकले हुए नहीं होते, वरन् बेलनाकार रोटर में बने खाँचों में अवस्थित क्षेत्र कुंडलियों द्वारा बनते हैं। आकृति के अनुरूप इस प्रकार के रोटर को बेलनाकार (cylindrical) रोटर अथवा चिकना (smooth) रोटर कहते हैं।
टर्बोजनित्र के उच्च वेग पर प्रवर्तित करने के कारण, इनमें वेयरिंग के स्नेहन (lubrication) और संवातन (ventilation) की समस्याएँ अत्यंत महत्वपूर्ण होती हैं। जलविद्युत् जनित्रों में वेयरिंग पर बहुत अधिक भार होने के कारण (रोटर बहुत बड़ा और भारी होता है) तथा पार्श्व बल के लगने के कारण, स्नेहन की समस्या जटिल होती है, परंतु संवातन स्वयं अपने आप ही पर्याप्त हो जाता है। स्नेहन के लिए तेल पंप द्वारा तेल चलनशील भागों में, जहाँ स्नेहन आवश्यक होता है, दाब (pressure) के साथ भेजा जाता है। तेल साफ करने के लिए तेल फिल्टर भी आवश्यक सहायक (auxiliary) है। स्नेहन दाब घट जाने पर, मशीन के सक्रिय रूप से बंद हो जाने की भी व्यवस्था होती है।
टर्बोजनित्रों में संवातन के लिए बहुधा वलित संवातन (forced ventilation) का प्रयोग किया जाता है। आर्मेचर और रोटर में वाहिनियाँ (ducts) इस प्रकार बनी होती है कि एक ओर से हवा खिंचकर इन वाहिनियों में होती हुई और मशीन को ठंढा करती हुई दूसरी ओर को निकल जाती है। उच्च वेग पर इस क्रिया में सहायता तो मिलती है, परंतु बड़े बड़े जनित्रों में यह प्राकृतिक रूप से संवातन पर्याप्त नहीं होता और हवा को दबाव के द्वारा मशीन में भेजा जाता है। धूल और नमी से मशीन को बचाने के लिए, संवाहन का बंद तंत्र (closed system of ventilation) प्रयुक्त होता है। इसमें उसी वायु को बार बार प्रयुक्त किया जाता है और गरम होने पर, वायुशीतक (air cooler) द्वारा उसे ठंडा कर लिया जाता है और फिर उसे दबाव के साथ मशीन में संवातन के लिए भेजा जाता है। बड़े जनित्रों में संवातन के लिए वायु के स्थान पर हाइड्रोजन गैस का भी प्रयोग किया जाता है। हाइड्रोजन वायु से १४ गुना हल्का होता है। अत:, संवातन के लिए इसे प्रयोग करने से वायव्य हानि (windage loss) कम हो जाती है। ऊष्मा निष्कासन का भी यह वायु से अधिक प्रभावी माध्यम है। परंतु वायु के साथ मिलकर हाइड्रोजन विस्फोटक हो सकता है और इसे बचाने के लिए पर्याप्त सावधानी रखी जाती है।

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